श्रील जीव गोस्वामीपाद, श्रील भक्तिविनोद ठाकुर, श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद
श्रीश्रीमद्भक्तिवेदान्त नारायण गोस्वामी महाराज
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Binding | Paperback |
Size | 8.5" x 5.5" |
कलियुगपावन-स्वभजनविभजनप्रयोजनावतारि-श्रीकृष्णचैतन्याम्नायतृतीयाधस्तनवर-
पुरुषराजेन श्रीविश्ववैष्णवराजसभा-सभाजनविभाजन-
श्रीरूप-सनातनानुशासनानुसरण-निपुणगणगरिष्ठेन
श्रीब्रह्ममाध्वगौड़ीयसम्प्रदायसंरक्षकवर्येन
श्रीमता जीवगोस्वामिपादेन कृतया टीकया
श्रीकृष्णचैतन्याम्नायाष्टमाधस्तनपुरुषवर्येन
श्रीमद्भक्तिविनोदठक्कोरेण लिखितैः पाठकाकर्षणानुवादतात्पर्यैः
श्रीचैतन्यमठस्य तथा श्रीगौड़ीयमठानां प्रतिष्ठातृवरेण प्रभुपादेन
श्रीचैतन्याम्नायनवमाधस्तेनान्वयाचार्यभास्करेण
श्रीलभक्तिसिद्धान्तसरस्वतीगोस्वामिठक्कुरेण
लिखितया आकृष्टस्योपलब्ध्याख्यया भूमिकया
राष्ट्रभाषाप्रतिशब्दसमन्वितेन प्रकाशककृतान्वयेन
श्रीगौड़ीयवेदान्तसमितेः प्रतिष्ठातुः श्रीकृष्णचैतन्याम्नायदशमाधस्तनवरस्य
श्रीगौड़ीयाचार्यकेशरिणः
श्रीश्रीमद्भक्तिप्रज्ञानकेशवगोस्वामिनः
अनुगृहीतेन
त्रिदण्डिस्वामिना श्रीमद्भक्तिवेदान्तनारायणमहाराजेन
कृतया विवृत्या संवलिता सम्पादिता च
श्रीश्रीमायापुरचन्द्रो जयति।
पाठकाकर्षण: श्रीचैतन्यचरितामृत-मध्यलीलाके नवम-परिच्छेदमें ऐसा उल्लेख है-
सेइ दिन चलि आइला पयस्विनी तीरे। स्नान करि' गेल आदिकेशव-मन्दिरे ।।
महाभक्तगणसह ताहाँ गोष्ठी हइल । 'ब्रह्मसंहिताध्याये' पुँथि ताहाँ पाइल ।।
पुँथि पाइया प्रभुर हैल आनन्द अपार । कम्प-अश्रु-स्वेद-स्तम्भ-पुलक-विकार ।।
सिद्धान्त-शास्त्र नाहि 'ब्रह्मसंहिता' -समान । गोविन्दमहिमा-ज्ञानेर परम कारण ।।
अल्प अक्षरे कहे सिद्धाान्त अपार । सकल-वैष्णव शास्त्र-मध्ये अति सार ।।
बहु यत्ने सेई पुँथि लइला लेखाइया । 'अनन्त-पद्मनाभ' आइला हरषित हइया ।।
-अर्थात् संन्यास ग्रहणके पश्चात् श्रीशचीनन्दन गौरहरि श्रीपुरी धाममें कुछ दिन रहे। तत्पश्चात् तीर्थ-भ्रमणके बहाने दक्षिण भारतमें भ्रमण करते-करते कन्याकुमारीका दर्शनकर मल्लार देश-स्थित 'वेतपानी' नामक तीर्थस्थलमें श्रीरघुनाथजीका दर्शन किया। रातमें वहीं विश्राम किया। वहाँ भट्टथारियोंका एक दल (कंजड़ जैसा घूमता-फिरता फिरका दल) ठहरा हुआ था। उन्होंने श्रीमन्महाप्रभुके संगी-सेवक कालाकृष्णदासको स्त्रीधनका लोभ देकर फँसा लिया। किन्तु श्रीमन्महाप्रभु किसी प्रकार कृष्णदासको अपनी ऐश्वर्यमयी शक्तिसे बचाकर उसी दिन पयस्विनी नदीके पावन तट पर चले आये। वहाँ उन्होंने स्नान-सन्ध्यादिकर श्रीआदिकेशवका दर्शन किया। दर्शन करते समय वे भावाविष्ट होकर नृत्य, कीर्तन और स्तव-स्तुति करने लगे। उनका दर्शनकर वहाँ उपस्थित हजारों दर्शनार्थी और विद्वान् भक्तजन बडे़ ही आश्चर्य चकित हुए। देव-दर्शनके पश्चात् बड़े-बड़े उच्चकोटिके विद्वान् और तत्त्वज्ञ भक्तोंको 'श्रीब्रह्मसंहिता' के इस पञ्चम अध्यायका पाठ करते हुए देखा। श्रीमन्महाप्रभु उस भक्तिग्रन्थको श्रवणकर बड़े ही उल्लसित हुए। उसके कतिपय श्लोकोंको स्वयं पढ़कर स्थिर नहीं रह सके। उनके अङ्गोंमें अश्रु, पुलक, कम्प आदि अष्टसात्त्विक भाव प्रकाशित होने लगे। वास्तवमें ब्रह्मसंहिता एक अपूर्व और अनुपम भक्तिग्रन्थ है। इसमें स्वयं-भगवान् श्रीगोविन्ददेवका चरम महत्व, भगवत्तत्त्व-ज्ञान, भक्तितत्त्व-ज्ञान आदिके चरम सिद्धान्तोंका वर्णन गागरमें सागरकी भाँति भरा हुआ है। संक्षेपमें यह ग्रन्थ वेद, पुराण, श्रीगीता, श्रीमद्भागवत आदि सभी वैष्णव-शास्त्रोंका सार-संकलन है। श्रीमन्महाप्रभुजी अतिशय प्रयत्नपूर्वक इस महान ग्रन्थकी एक प्रतिलिपि प्रस्तुत करवाकर उसे अपने साथ श्रीधाम पुरीमें लाये थे। इसके अतिरिक्त इस ग्रन्थके विषयमें मेरा अपना कोई वक्तव्य नहीं है। मेरा तो केवलमात्र यही कथन है कि यदि यह ग्रन्थ अति प्राचीन ग्रन्थोंकी श्रेणीमें परिगणित हो, तो यह अतिशय अपूर्व कृष्ण-भक्तिका प्रमाण-स्थल होगा। यदि कोई यह कहे कि इस प्रदेशमें (उत्तर भारत) इस ग्रन्थका कहीं भी कोई उल्लेख नहीं मिलता; अतएव श्रीचैतन्यमहाप्रभु ही इसके रचयिता हैं। यदि ऐसा ही स्थिर हो, तो इससे अधिक आनन्दका विषय और क्या हो सकता है? क्योंकि श्रीमन्महाप्रभु द्वारा रचित कोई सिद्धान्त-ग्रन्थ प्राप्त होने पर वैष्णव-जगतमें और कोई संशय ही नहीं रहेगा। जैसी भी विवेचना करें, यह ब्रह्मसंहिता-ग्रन्थ वैष्णवमात्रके लिए पूजनीय और पठनीय है। -श्रीभक्तिविनोद ठाकुर
Lord Brahma's prayers of devotion to Sri Krsna. These prayers, offered at the dawn of creation by Brahma, the secondary creator of the universe, contain all the essential truths of Vaisnava philosophy. "Lord Brahmā described in a saṁhitā (compilation) of one hundred chapters whatever essence of pure bhakti he had been holding in his heart in connection with the Supreme Lord. Among those chapters, this Fifth Chapter is most worshipable for Gauḍīya Vaiṣṇavas because it is extremely practical and advantageous for the living entity. Śrī Caitanya Mahāprabhu personally brought Brahma-saṁhitā from South India for His devotees." [Śrīla Prabhupāda Sarasvatī Ṭhākura].
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