श्रीश्रील ठाकुर भक्तिविनोद-विरचित
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Binding | Hardcover |
Size | 9" x 6" |
... ‘जैवधर्म’ में पूर्वोक्त तथाकथित कलि-प्रचोदितधर्म-धर्म नहीं है, धर्मका स्वरूप क्या है, धर्मके साथ हमारा सम्बन्ध क्या है, धर्मका पालन करनेसे क्या लाभ है तथा धर्मका यथार्थ तात्पर्य क्या है-आदि विषयोंका बड़ा
ही साङ्गोपाङ्ग विवेचन प्रस्तुत किया गया है। लगभग ६०० पृष्ठोंके इस छोटे-से ग्रन्थका पाठ करनेसे सम्पूर्ण शास्त्रोंका तात्पर्य अत्यन्त संक्षेपमें जाना जा सकता है। इसमें प्रश्नोत्तरके रूपमें विश्वके सारे धर्मोंकी तुलनामूलक आलोचना की गयी है। एक वाक्यमें मैं यह कह सकता हूँ कि इस छोटे-से ग्रन्थमें गागरमें सागरकी भाँति सम्पूर्ण भारतीय शास्त्रोंका सार भरा हुआ है। अतएव यह कहना अत्युक्ति नहीं होगी कि किसी धर्मजीवनमें इस ग्रन्थका पाठ नहीं किये जानेसे धर्म-तत्त्व ज्ञानका उसमें अवश्य ही अभाव रह जायेगा।
इस ग्रन्थमें किन-किन महत्वपूर्ण विषयोंका विवेचन हुआ है, इस विषयको जाननेके लिए पाठकवर्गसे इस ग्रन्थकी अनुक्रमणिका देखनेके लिए अनुरोध करता हूँ। ग्रन्थकारने शास्त्र-मर्यादाको अक्षुण्ण रखते
हुए सम्बन्ध-अभिधेय-प्रयोजनात्मक-तत्त्वको तीन खण्डोंमें प्रकाशित किया है। कुछ अनभिज्ञ लेखकोंने (१) सम्बन्ध, (२) अभिधेय और (३) प्रयोजन-इस क्रमका उलङ्घन कर सबसे पहले ही (३) ‘प्रयोजन’
तत्त्वकी आलोचना करके पीछे (१) ‘सम्बन्ध’ (२) ‘अभिधेय’-तत्त्वोंका वर्णन किया है, जो वेद, उपनिषद्, पुराण, महाभारत और विशेषकर प्रमाण शिरोमणि श्रीमद्भागवत आदिके सिद्धान्तोंके सर्वथा प्रतिकूल है।
पहले खण्डमें नित्य और नैमित्तिक धर्मोंका विश्लेषण है, दूसरे खण्डमें सम्बन्ध-अभिधेय-प्रयोजन-तत्त्वोंका दृढ़ शास्त्रीय प्रमाणोंके आधारपर साङ्गोपाङ्ग वर्णन है तथा तीसरे खण्डमें रस-विचारका मार्मिक विवेचन
है। श्रील प्रभुपादकी विचारधाराके अनुसार जब तक कुछ उन्नात अधिकारकी प्राप्ति न हो जाये, तब तक ‘रसविचार’ में प्रवेश करना उचित नहीं। यदि कोई अनधिकारी साधक ‘रसविचार’ में प्रवेश करनेकी अनधिकार चेष्टा करेगा तो उसका हितकी अपेक्षा अहित ही होगा। श्रील प्रभुपादने ‘भाई सहजिया’, ‘प्राकृतरस-शत-दूषणी’ तथा अन्यान्य अनेक प्रबन्धोंमें इसे सुस्पष्ट रूपसे व्यक्त किया है। इसलिए इस विषयमें सतर्क रहनेकी आवश्यकता है।
मूल ‘जैवधर्म’ ग्रन्थ बँगला भाषामें है। फिर भी इसमें शास्त्रीय प्रमाण आदि सम्वलित संस्कृत भाषाका प्रचुर प्रयोग किया गया है। इस ग्रन्थकी व्यापक लोक-प्रियताका इसीसे पता चलता है कि थोड़े ही समयमें बँगला भाषामें इसके दस-बारह बड़े-बड़े संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। हिन्दी भाषामें अनुदित जैवधर्मका प्रस्तुत संकरण-श्रीगौड़ीयवेदान्त समिति द्वारा अभिनव आकारमें प्रकाशित जैवधर्मके अभिनव संस्करणकी पद्धतिका अनुसरण करके मुद्रित हुआ है। हिन्दी पारमार्थिक मासिक-‘श्रीभागवत पत्रिका’ के सुयुयोग्य सम्पादक-त्रिदण्डि स्वामी श्रीश्रीमद्भक्तिवेदान्त नारायण महाराजजीने बड़े परिश्रमसे इस ग्रन्थको हिन्दीमें अनूदित कर उक्त पत्रिकाके पहले वर्षसे छठे वर्ष तक में प्रकाशित किया है। अब अनेक श्रद्धालु व्यक्तियोंके बारम्बार अनुरोधपर हिन्दी भाषी धार्मिक जनताके कल्याणार्थ उसीको पुस्तकाकारमें प्रकाशित किया गया है। प्रसङ्गवश मैं यह कहनेके लिए बाध्य हो रहा हूँ कि अनुवादक महोदय हिन्दी भाषी हैं, बँगला उनकी मातृ-भाषा नहीं है, तथापि उन्होंने इस ग्रन्थका अनुशीलन करनेके लिए बँगला भाषाका अध्ययन किया तथा उसमें विशेष अभिज्ञता प्राप्त करके कठोर परिश्रम और कष्ट स्वीकार कर इस ग्रन्थका अनुवाद किया है। मुझे हार्दिक प्रसन्नाता है कि इसमें मूल-ग्रन्थके कठिन दार्शनिक एवं रसविचारके अतिगहन तथा परमोन्नात सूक्ष्म भावोंकी भलीभाँति रक्षा हुई है। हिन्दी जगत् इस महान कार्यके लिए इनका कृतज्ञ रहेगा। विशेषतः श्रील प्रभुपाद और श्रील भक्तिविनोदे ठाकुर इनके इस अक्लान्त सेवेवा कार्यर्कके लिए निश्चित रूपमें इन पर प्रचुर कृपा करेंगे। ...
श्रील प्रभुपाद-किङ्कर
त्रिदण्डि-भिक्षु
श्रीभक्ति प्रज्ञान केशव
‘जैवधर्म’ कहनेसे जीवसम्बन्धी धर्म या जीवके धर्मका बोध होता है। बाह्य दृष्टिसे विभिन्न देशोंकी विभिन्न जातियों एवं विभिन्न वर्गोंके मनुष्यों, पशु-पक्षियों, कीट-पतङ्गों तथा दूसरे-दूसरे विभिन्ना प्राणियोंके धर्म भिन्न-भिन्न दृष्टिगोचर होनेपर भी अखिल ब्रह्माण्डोंके निखिल जीवसमूहका नित्य और सनातन-धर्म एक है। जैवधर्म ग्रन्थमें इसी सार्वत्रिक, सार्वकालिक तथा सार्वजनिक नित्य-धर्म-‘जैवधर्म’ का हृदयग्राही साङ्गोपाङ्ग वर्णन है। इसमें वेद, वेदान्त, उपनिषद्, श्रीमद्भागवत आदि पुराण, ब्रह्मसूत्र, महाभारत, इतिहास, पञ्चरात्र, षट्सन्दर्भ, श्रीचैतन्यचरितामृत, भक्तिरसामृतसिन्धु और उज्ज्वलनीलमणि आदि सद्ग्रन्थोंके अतिशय गम्भीर और गहन विषयोंका सार सरस, सरल कथोपकथन शैलीमें गागरमें सागरकी भाँति भरा हुआ है।
This compelling narrative based on spiritually developed personalities and others in cultured Bengali life a few hundred years ago, serves as the basis of Śrīla Bhaktivinoda Ṭhākura's presentation of the Gauḍīya Vaiṣṇava philosophy, from its basic tenets to its esoteric pinnacle. Woven into the story are penetrating philosophical questions that are commonly pondered and eternally relevant. The depth of the answers gives clarity and direction to the quest to establish ourselves in our jaiva-dharma, our soul's constitutional function.
The word jaiva-dharma refers to the dharma of the jiva, or the constitutional function of the living being. From external appearances, human beings seem to have different religions according to classifications of country, caste, race, and so on. The constitutional natures of human beings, animals, birds, worms, insects, and other living entities also seem to be of different varieties. But in reality, all living beings throughout the universe have only one eternal, immutable dharma. Jaiva-dharma gives a compelling and thorough description of this dharma, which is eternal and which applies everywhere, at all times, and to all living beings. This book is filled with a highly concise form of the essence of the exceedingly deep and confidential topics of the Vedas, Vedanta, Upanishads, Srimad-Bhagavatam, Puranas, Brahma-sutra, Mahabharata, Itihasas, Pancaratra, Sat-sandarbha's, Sri Caitanya-caritamrta, Bhakti-rasamrita-sindhu, Ujjvala-nilamani, and other ideal Sastras. Furthermore, it is written in the form of a tasteful, entertaining, and easily-comprehensible novel.
TITLE: Jaiva Dharma - Hindi
AUTHOR: Srila Bhaktivinoda Thakur
Hindi Translation by Srimad Bhaktivedanta Narayan Goswami Maharaja
PUBLISHER: Gaudiya Vedanta Publications
EDITION: 5th, 2008
PAGES: 670, with 8 Color Plates
SHIPPING WEIGHT: 1150 grams
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